Archive for अगस्त 2015

कहानी : नफ़रत   Leave a comment

(१)

दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते

खाई भी जोड़ती है

–   गीत चतुर्वेदी

कोई किसी से कितनी नफ़रत कर सकता है? जब नफ़रत ज़्यादा बढ़ जाती है तो आदमी अपने दुश्मन को मरने भी नहीं देता क्योंकि मौत तो दुश्मन को ख़त्म करने का सबसे आसान विकल्प है। शुरू शुरू में जब मेरी नफ़रत इस स्तर तक नहीं पहुँची थी, मैं अक्सर उसकी मृत्यु की कामना करता था। मंगलवार को मैं नियमित रूप से पिताजी के साथ हनुमान मंदिर में प्रसाद चढ़ाने जाता था। प्रसाद पुजारी को देने के बाद पिताजी हाथ जोड़ कर और आँखें बंद करके प्रार्थना करते थे। मैं भी पिताजी को देखकर वैसा ही करता था। अंतर बस इतना था कि वो संभवतः हनुमान चालीसा पढ़ते थे और मैं उस लड़की की मृत्यु की कामना करता था। जैसे जैसे मेरी नफ़रत बढ़ती गई मैं माँगने लगा कि ये मरे नहीं जिन्दा रहे और जैसे ये मेरे हिस्से का मान सम्मान मुझसे छीन लेती है वैसे ही एक दिन मैं इसके हिस्से का मान सम्मान इससे छीन लूँ।

बचपन से ही वो हर चीज में मुझसे आगे थी। वो मेरे पिताजी के दोस्त की बेटी थी। मेरे पिताजी के सामने उनके दोस्त की कोई हैसियत नहीं थी। वो ठेले पर चाट बेचकर अपने परिवार का पेट पालते थे और मेरे पिताजी कस्बे के एकमात्र पेट्रोल पम्प के मालिक थे। मेरे पिताजी कभी कभार उसके पिताजी की मदद भी कर देते थे। हर बात में मेरा परिवार उसके परिवार से आगे था। मेरे पिताजी के दो बेटे थे यानि कि हम दो भाई थे और उसके पिताजी के तीन बेटियाँ थीं। बेटा न होने का ग़म उसके पिताजी को सालता रहता था। मैं भाइयों में सबसे बड़ा था और वो बहनों में। हम दोनों एक ही विद्यालय में और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। अंतर बस इतना था कि वो हर बार कक्षा में प्रथम स्थान पर रहती थी और मैं द्वितीय स्थान पर।

कक्षा में अध्यापक जब भी कोई प्रश्न पूछते वो फट से हाथ उठा देती और पटर पटर प्रश्न का उत्तर देने लगती। उसकी बोली मेरे कानों में पिघले शीशे की तरह टपकती। प्रश्न का उत्तर तो मुझे भी पता होता पर मुझे हाथ उठाने में शर्म महसूस होती थी। मैं थोड़ा सा हकलाता था। कुछ एक वर्ण ऐसे थे जो किसी विशेष वर्ण के बाद आ जाएँ तो मै कितनी भी कोशिस करूँ उनका उच्चारण नहीं कर पाता था। शुरू में एक दो बार मैंने भी हाथ उठाया था। मगर हकलाने के कारण मुझे इतनी शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी कि फिर मैंने हाथ उठाना ही बन्द कर दिया।

वो न होती तो निःसंदेह मैं नम्बर वन होता। अध्यापकों को मेरे हकलाने के बावजूद उत्तर सुनना पड़ता क्योंकि शहर से दस किलोमीटर दूर बसे इस छोटे से कस्बे के इस छोटे से विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी पढ़ने में कम और बाकी सारी बातों में ज़्यादा रुचि लेते थे। उन्हें कोई उत्तर याद हो इस बात का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। वो न होती तो शायद अध्यापक मेरी मदद करते और तब कक्षा के अन्य कामचोर विद्यार्थी मेरे हकलाने पर मेरा मज़ाक न उड़ाते। वो न होती तो मेरी जिन्दगी कितनी आसान और शानदार होती।

(२)

मुझे तब कुछ राहत मिली जब छठी कक्षा में मैंने राजकीय इण्टर कालेज में प्रवेश लिया। इस कालेज में केवल लड़के ही पढ़ते थे। वो गई राजकीय महिला इण्टर कालेज में। छठवीं से आठवीं कक्षा तक मुझे राहत रही। मैंने इन तीनों कक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया और अध्यापकों का चहेता बना रहा। लेकिन मेरी बदकिस्मती अगर इतनी आसानी से मेरा पीछा छोड़ देती तो बात ही क्या थी। नवीं कक्षा में फिर मुझे उसी समस्या से दो चार होना पड़ा। इस छोटे से शहर में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित और अंग्रेजी के अच्छे शिक्षक उँगलियों पर गिने जा सकते थे। उनमें से कुछ तो वही थे जो मेरे विद्यालय के अध्यापक थे। ये अध्यापक विद्यालय में कम और अपने घर पर कोचिंग में ज़्यादा पढ़ाया करते थे। इसलिए जिन विद्यार्थियों को पढ़ने में रुचि थी वो इन चारों विषयों की कोचिंग पढ़ा करते थे। मैंने भी इन चारों विषयों की कोचिंग पढ़ने का निर्णय लिया। सबसे पहले मैंने भौतिक विज्ञान पढ़ने का निश्चय किया। भौतिकी में मेरी रुचि थी इसलिए मैं चाहता था कि सुबह ताज़े दिमाग़ से मैं भौतिक विज्ञान पढ़ूँ। मैंने निर्णय लिया कि सुबह सात से आठ के बैच में मैं भौतिक विज्ञान पढ़ूँगा।

यहाँ से फिर वही समस्या पैदा हुई। उसके पिता ने भी उसे उन्हीं अध्यापकों के पास, उसी समय भेजा जब मैं पढ़ने जाता था। उन्होंने संभवतः उसकी सुरक्षा के लिहाज़ से ऐसा किया होगा कि मैं साथ रहूँगा तो वो चिन्ता से मुक्त रहेंगे। लेकिन मेरे लिए वो जी का जंजाल बन गई। अब तो सारे अध्यापक विद्यालय में भी मुझसे ज़्यादा तारीफ़ उसी की करते थे और कहते थे कि वो दसवीं में जिले भर में सबसे ज़्यादा नम्बर लाकर उनका नाम रोशन कर सकती है। हो सकता है उसका नाम बोर्ड की मेरिट लिस्ट में भी रहे। ये सुनकर मेरा रोम रोम जल उठता था।

जैसा अध्यापक सोच रहे थे वैसा ही हुआ। जब परीक्षा परिणाम घोषित हुए तो उसका नाम बोर्ड की मेरिट लिस्ट में पन्द्रहवें स्थान पर था। मैं उससे केवल पन्द्रह नम्बर पीछे था लेकिन मेरिट लिस्ट से बाहर होने के लिए इतने नम्बर बहुत होते हैं। घर वालों और मुहल्ले वालों से जो सम्मान मुझे मिलना चाहिए था वो सारा उसको मिल गया। जब दो लाइनें आस पास खींची हुई हों तो छोटी लाइन को कौन देखता है। यही दुनिया की रीति है। दूसरे, तीसरे, चौथे नंबर वाले को कौन पूछता है? कौन याद रखता है? इन सबको जो सम्मान मिलना चाहिए वो इनसे छीनकर पहले नंबर वाले को दिया जाता है। पहला नंबर सबकुछ है उसके बाद वाले नंबर जो उससे ज़रा सा ही कम हैं, कुछ भी नहीं।

(३)

बारहवीं कक्षा में मेरे और उसके बीच का अंतर कुछ कम हुआ। इस बार वो मेरिट लिस्ट में नहीं थी और मैं उससे केवल पाँच नम्बर कम लाया था। वो तो मुई अंग्रेज़ी धोखा दे गई वरना इस बार मैं उसे पटखनी देने में कामयाब हो जाता। इस बार मैं उसका सारा घमंड तोड़ देता।

बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैं इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की कोचिंग लेने दिल्ली में अपने मामा के घर चला गया। उसका दिल्ली में कोई नहीं था इसलिए वो लखनऊ में अपने चाचा के पास चली गई जो उन दिनों वकालत करने के बाद किसी बड़े वकील के चेले बनकर कोर्ट-कचहरी का काम सीख रहे थे। उसके चाचा के दो बेटे थे जिन्हें वो पढ़ाती भी थी।

साल बीतते देर नहीं लगी। हम लोग इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा देकर घर वापस आ गये। जब संयुक्त प्रवेश परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो मैं ख़ुशी से पागल हो गया। मैं सफल हो गया था और वो असफल। वैसे मैं बड़ी मुश्किल से सफल हो पाया था और वरीयता क्रम में मेरा नाम बहुत नीचे था लेकिन उसका तो चुनाव ही नहीं हुआ था। इस बार घर और मुहल्ले वालों के पास मेरी तारीफ़ करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

मैं उसके घर गया। उसकी मम्मी बाहर बरामदे में बैठी थी।

मैंने पूछा, “कलिका कहाँ है”।

उन्होंने जवाब दिया, “अन्दर है। अपने कमरे में। बहुत रो रही है। तुम उसके दोस्त हो जाकर उसे समझाओ। शायद तुम्हारी बात समझ ले।”

मैं मन ही मन हँसा। मैं और उसका दोस्त। मैं तो उसका सबसे बड़ा दुश्मन हूँ। मैं उसके कमरे में गया। दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं था। मैं धक्का दिया तो वो खुल गया। वो तकिये में मुँह छिपाकर लेटी हुई थी।

मैंने पुकारा, “कलिका”।

मेरी आवाज सुनकर उसने तकिये से सर उठाया। तकिया उसके आँसुओं से भीगा हुआ था। मेरी दुश्मन मेरे सामने थी। कमजोर, निराश, हारी हुई। अब वक़्त था आखिरी वार करने का।

मैंने कहा, “देखो कलिका ये कोई बड़ी बात नहीं। संयुक्त प्रवेश परीक्षा में कुल चुने गये विद्यार्थियों का केवल दस प्रतिशत लड़कियाँ होती हैं। इसलिए तुम्हारा न चुना जाना कोई बड़ी बात नहीं। देखो दसवीं और बारहवीं की परीक्षा तो कोई भी रट कर पास कर लेता है लेकिन संयुक्त प्रवेश परीक्षा में चुने जाने के लिए तेज़ दिमाग चाहिए। वो सब के पास नहीं होता। ख़ास कर लड़कियों के पास। विश्व भर में किये गये विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि लड़कियों के दिमाग का आयतन लड़कों से एक सौ पच्चीस घन सेन्टीमीटर कम होता है। मुझे तो लगता है कि तुम्हें गणित छोड़कर कोई और विषय चुन लेना चाहिए। वैसे देखो अभी प्रदेश की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आने वाला है। शायद उसमें तुम्हारा चुनाव हो जाय।”

ये सब बोलते हुए मैं एक बार भी नहीं हकलाया। ये तो चमत्कार हो गया। मेरी बात सुनकर वो जोर जोर से रोने लगी। मैं तुरन्त उसके कमरे से बाहर आ गया।

उसकी माँ ने पूछा, “क्या हुआ बेटा”।

मैंने कहा, “अ…..आन्टी, वो तो कोई बात सुनने को ही तैयार नहीं है। मेरे विचार में उसे अ…अच्छी तरह रोने देना ही ठीक रहेगा। एक बार उसके दिल का गुबार निकल गया तो सब ठीक हो जाएगा।”

“और बेटा तुम मिठाई कब खिला रहे हो”।

“अ..अभी तो बड़ी तेज़ धूप है। शाम को बाजार से लेकर आता हूँ अ…आन्टी”।

ये कहकर मैं फौरन वहाँ से चलता बना। मेरा काम हो गया था।

(४)

जब प्रदेश की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आया तो पता चला कि उसका भी चुनाव हो गया है। इस परीक्षा में वरीयता क्रम में वो मुझसे तीन सौ पैंतीस स्थान नीचे थी। मुझे कितना सुकून मिला मैं बता नहीं सकता। बहरहाल मैंने प्रौद्योगिकी संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और उसने मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में। मुझे सिविल इंजीनियरिंग में प्रवेश मिला और उसे मैकेनिकल इंजीनियरिंग में।

तीन साल कैसे गुज़र गये पता ही नहीं चला। चौथे साल की शुरुआत से ही कैंपस में विभिन्न कंपनियों का आना शुरू हो गया। मैं अपनी कक्षा का टॉपर था इसलिए स्क्रीनिंग में हर बार मैं चुन लिया जाता था लेकिन साक्षात्कार में मेरा हकलाना मेरे चुने जाने की राह में बाधक बन जाता था। मेरे देखते ही देखते मेरे ज़्यादातर दोस्तों को विभिन्न कंपनियों में नौकरी मिल गई। यहाँ तक तो सब ठीक था मगर दशहरे की छुट्टियों में घर आने के बाद मुझे पता चला कि कलिका की नौकरी किसी कंपनी में लग गई है। मैं बता नहीं सकता मुझे कैसा लग रहा था जब वो मुस्कुराती हुई मिठाई लेकर मेरे पास आई।

उसने कहा, “माना मेरा दिमाग़ तुमसे एक सौ पच्चीस घन सेन्टीमीटर कम है लेकिन मेरी संप्रेषण क्षमता तुमसे एक सौ पच्चीस घनमीटर ज़्यादा है। अब जाओ एम. टेक. करो, फिर पी.एच.डी. करो और किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफ़ेसर हो जाओ।”

उस दिन मेरे भीतर कुछ मर गया। मेरे मन में उसके प्रति यदि कहीं कोई कोमल भावना थी तो वो ख़त्म हो गई। उस दिन पहली बार मैं बिना कोई संजीदा फ़िल्म देखे रोया। मैं वापस गया कॉलेज गया और कुल मिलाकर सत्रह बार मुझे साक्षात्कार देने का मौका मिला और मैं सब में असफल हुआ। ये साल भी पलक झपकते ही गुज़र गया और जब गेट की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो वरीयता सूची में मैं देश भर में पचासवें स्थान पर था। मैंने आईआईटी रुड़की में संरचनात्मक अभियांत्रिकी में एम. टेक. करने के लिए प्रवेश लिया।

यहाँ मेरा पहला साल आराम से गुज़रा। पढ़ने और परीक्षा पास करने में मुझे कोई ख़ास दिक़्कत नहीं होती थी। दूसरे साल से फिर मैंने कॉलेज कैंपस में आने वाली कंपनियों में साक्षात्कार देना शुरू किया। पहली दो कंपनियाँ छोटी छोटी कंपनियाँ थीं जिनमें मैं एक बार फिर साक्षात्कार में असफल रहा। तीसरी कंपनी थी राष्ट्रीय शक्ति निगम, जो देश की सबसे बड़ी जल विद्युत उत्पादक कंपनी थी। इस कंपनी ने साक्षात्कार में मेरे हकलाने के बावजूद मुझे चुन लिया गया। मैंने घर फोन करके सबको बताया। फिर मैंने कलिका की माँ से कलिका का मोबाइल नम्बर लिया। उसे फोन लगाया और अपनी नौकरी के बारे में बताया। ये भी बताया कि मेरी तनख़्वाह उससे डेढ़ गुना होगी। उसने बधाई हो कहकर फोन काट दिया।

मेरा काम हो चुका था। मैं उसे जलाना चाहता था और मुझे पूरा विश्वास था कि इस समय वो पेट्रोल से भी ज़्यादा तेज़ जल रही होगी।

(५)

एम. टेक. करने के बाद मैंने राष्ट्रीय शक्ति निगम में अपना कार्यभार सँभाल लिया। मुझे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में रामगंगा नदी चल रही परियोजना में भेज दिया गया। यहाँ मेरी कंपनी एक बाँध का निर्माण कर रही थी। बाँध कंक्रीट का बनाया जा रहा था और उसका निर्माण कार्य आधा हो चुका था। वहाँ मुझे पहली बार वह सब अपनी आँखों के सामने देखने का मौका मिला जो मैंने अब तक किताबों में ही पढ़ा था। बड़ी बड़ी मशीनें, जिनके सामने आदमी चींटी जैसा नज़र आता है। बड़े बड़े एक्सकैवेटर, डंपर, डोजर, कम्पैक्टर जब चलते थे तो लगता था कि जैसे बादल गरज रहे हों। ऊँची-ऊँटी टॉवर क्रेनें, बड़े बड़े कंक्रीट पम्प और ढेर सारी कंक्रीट। कंक्रीट को सही जगह और सही तरीके से गिराने में मदद करते हजारों मज़दूर। काम बहुत तेज़ गति से चल रहा था और हमें उम्मीद थी कि ये सब वक़्त से पहले पूरा हो जाएगा। धीरे धीरे मेरा मन काम में रम गया।

सरकारी उपक्रमों में किस आदमी से कौन सा काम लिया जाएगा ये कोई नहीं बता सकता। हो सकता है आप इंजीनियर हों और आपको पेड़ पौधे लगाने का काम दे दिया जाय या आपको मानव संसाधन विभाग में लगा दिया जाय। इस मामले में मैं खुशकिस्मत था कि मुझे वहीं लगाया गया जहाँ मैं चाहता था। सरकारी उपक्रमों का मानव संसाधन विभाग संभवतः सबसे अक्षम विभाग है क्योंकि उसे ये बिल्कुल भी नहीं पता होता कि कौन किस काम के लिए सही रहेगा। सब ट्रायल एण्ड एरर पर चलता है। लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का। लेकिन सरकारी उपक्रमों में एक और बात है जो बड़ी अजीब तो है लेकिन बहुधा होती है। जो काम करता है उसे और काम दे दिया जाता है और जो नहीं करता उसे कम से कम काम मिलता है। कुछ दिनों के बाद सिविल के साथ साथ मैकेनिकल विभाग के कुछ कार्यों की जिम्मेदारी भी मेरे पास आ गई। अब मुझे पावर इन्टेक (वो स्थान जहाँ से पानी टरबाइन तक जाने वाली सुरंग में घुसता है) और स्पिलवे (वो स्थान जहाँ से अतिरिक्त पानी को निकाल जाता है) के गेट भी लगवाने थे। ये काम कुल दो सौ पचास करोड़ का था।

उधर कलिका ने मुझसे ज़्यादा वेतन पाने के लिए अपनी पुरानी कंपनी छोड़कर एक दूसरी बड़ी कंपनी में चली गई। ये शायद उसके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। उसका वेतन तो मुझसे ज़्यादा हो गया लगभग डेढ़ गुना। लेकिन उसे ये नहीं मालूम था कि वो जिस कंपनी में जा रही है उसे मेरी परियोजना में ही पावर इन्टेक और स्पिलवे का गेट लगाने का काम सौंपा गया है। भारत में गिनी चुनी ही ऐसी कंपनियाँ हैं जिनके पास इतने बड़े गेट बनाने और लगाने का अनुभव है। कलिका को मेरी परियोजना में उपमहाप्रबंधक बनाकर भेज दिया गया। उसने अपने उच्चाधिकारियों को कहीं और भेजने के लिए पत्र लिखा लेकिन जवाब मिला कि अभी तो आपको जाना ही पड़ेगा। हाँ साल छः महीने में कहीं और जगह खाली होगी तो आपको वहाँ स्थानान्तरित कर दिया जाएगा।

इस तरह कलिका मेरी परियोजना में आई। इस परियोजना की मालिक मेरी कंपनी थी और उसकी कंपनी को इस परियोजना में दौ सौ पचास करोड़ का काम करना था। उसने आते ही बड़ी दक्षता से काम काज सँभाल लिया। हम दोनों जब आमने सामने पड़ते तो मैं नज़र चुराकर निकल जाता। जब कभी उसकी कंपनी के साथ बैठक होती और उसमें कलिका को आना होता मैं बैठक में किसी और को भेज देता। पहले महीने के काम के लिए उसकी कंपनी ने चार करोड़ का बिल भेजा। मैंने उसकी कंपनी के कामों में इतनी कमियाँ निकालीं कि वो बिल केवल डेढ़ करोड़ का रह गया। मेरी कंपनी के वित्त विभाग का एकमात्र उसूल है कि कम से कम भुगतान करो। कम भुगतान में कोई ख़तरा नहीं है अगर कोई गलती बता दे तो उसे अतिरिक्त भुगतान कभी भी किया जा सकता है लेकिन अगर ज़्यादा भुगतान हो गया तो उसे वापस पाना बहुत मुश्किल होता है। डेढ़ करोड़ के बिल में वित्त विभाग ने कुछ और कमियाँ निकालकर उसे एक करोड़ का कर दिया।

जब कलिका की कंपनी के खाते में पैसे पहुँच गए तो वो मेरे पास आई। मैं उसकी सूरत देखते ही समझ गया कि इसे अपने उच्चाधिकारियों से अच्छी ख़ासी डाँट पड़ी है।

वो बोली, “सुरेश, तुमने हमारे पैसे क्यों कम कर दिये।”

मैंने मुँह बनाते हुए उत्तर दिया, “तुम्हारे बिल बहुत सारी कमियाँ थीं जो जिनकी सूचना पत्र द्वारा तुम्हें दे दी जाएगी। उन कमियों को सुधारकर अगले महीने फिर से बिल भेजना।” अब मेरा हक़लाना पूरी तरह ख़त्म हो चुका था। शायद मेरी हकलाहट केवल आत्मविश्वास की कमी के कारण थी जो अब पूरी तरह से दूर हो चुकी थी।

उसने कहा, “तब तक हमारा काम कैसे चलेगा। हमारी कंपनी पहले ही यंत्र एवं उपकरण खरीदने में पचास करोड़ का ऋण ले चुकी है। अब हमारा प्रधान कार्यालय और पैसे भेजने से मना कर रहा है। अगर आप हमारे मासिक बिल का भुगतान नहीं करेंगे तो हम आगे का काम करने के लिए पैसे कहाँ से लाएँगें।”

मैंने कहा, “मुझे नहीं पता। तुमने सारे गेट बनाने का कान्ट्रैक्ट लिया है। तुम्हें गेट बनाना है। इसके लिए पैसे कहाँ से आएँगे ये तुम्हारी सरदर्दी है। मैं तुम्हें उतना ही भुगतान करवा सकता हूँ जितने का काम तुमने अच्छी तरह किया है। अगर किसी काम में जरा भी कमी होगी तो उसका भुगतान तब तक नहीं होगा जब तक कि वो कमी दूर न हो जाय। अगर तुम्हारी कंपनी ये काम नहीं कर सकती तो मना कर दे। हम तुम्हारे जोख़िम और लागत पर किसी और से करवा लेंगे। तुम्हारी कंपनी को ब्लैक लिस्ट कर देंगे और उसके बाद तुम्हें इस देश में कोई भी सरकारी / अर्द्धसरकारी कंपनी कान्ट्रैक्ट नहीं देगी।”

मुझे लगा कि अब वो रो देगी। अगर वो रो देती या एक बार गिड़गिड़ाकर मुझसे प्लीज़ कह देती तो मैं पूरक बिल बनाकर उसका भुगतान करवा देता। लेकिन वो एक झटके से उठी और बार निकल गई। तभी चाय वाला चाय लेकर भीतर आया। उसको दफ़्तर खाली दिखा तो वो बोला, “साहब आपने तो दो कप चाय मँगाई थी”।

मैंने कहा, “एक कप मुझे दे दे। एक कप तू पी लेना। इतनी देर लगती है चाय बनाने में।”

चाय वाले ने एक कप चाय मेरे सामने रखी और मेरे गुस्से को देखते हुए चुपचाप खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी।

(६)

अगले दिन मुझे परियोजना के महाप्रबंधक ने बुलाया। मैं उनके कार्यालय में गया तो उन्होंने मिलने से पहले मुझे दो घंटे बाहर इंतजार करवाया। वो ऐसा तब करते थे जब किसी पर गुस्सा हों। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमेशा मुझसे खुश रहने वाले महाप्रबंधक मुझसे नाराज़ क्यों हैं। मैं उनके सामने गया तो बोले, “देखो सुरेश, जब कान्ट्रैक्टर कोई काम करता है उसका काम का उचित भुगतान करना हमारा कर्यव्य बन जाता है। ये कंपनी इतनी बड़ी इसीलिए हुई है क्योंकि हमारे सारे कान्ट्रैक्टर यह विश्वास करते हैं कि यदि वो हमारे लिए अच्छा काम करेंगे तो हम उसके बदले उन्हें उचित भुगतान करेंगे। अब तक तो तुम्हारे खिलाफ़ मुझे कोई शिकायत नहीं प्राप्त हुई थी। इस बार तुमसे ऐसी गलती क्यूँ हो गई।”

मैं अपने बचाव में बोला, “उन्होंने जो बिल भेजा था उसमें बहुत गलतियाँ थीं। ऐसा ग़लत बिल अगर मैं पास कर देता तो कल को हम लोग सतर्कता विभाग की जाँच में फँस सकते थे। मैंने उन गलतियों के बारे में कान्ट्रैक्टर को पत्र लिख दिया है। अब अगले महीने जब वो गलतियाँ दूर कर लेंगे तो मैं भुगतान के लिए भेज दूँगा।”

महाप्रबंधक बोले, “अगले महीने नहीं इसी महीने करना है। आज सुबह ही कान्ट्रैक्टर काम बंद कर देने की धमकी देकर गया है। हमारी परियोजना समय से पहले पूरी होने जा रही है और ये बाकी कंपनियों के लिए एक मील का पत्थर होगी। मैं नहीं चाहता कि कुछ छोटी मोटी गलतियों की वज़ह से काम को किसी भी तरह का कोई नुकसान हो। कान्ट्रैक्टर बिल सुधारकर कल ही भेज देगा और तुम उसे जाँच करके शीघ्रातिशीघ्र भुगतान के लिए भेज देना। वित्त विभाग को भी मैं समझा दूँगा कि वो इतनी छोटी गलतियों के लिए पैसे न रोकें।”

मैं क्या कहता बात अब मेरे हाथ से निकल चुकी थी। मैं बोला, “ठीक है सर मैं पूरक बिल बना कर भेज दूँगा।”

महाप्रबंधक बोले, “ये हुई न बात। आगे से ऐसी शिकायत मेरे पास नहीं आनी चाहिए।”

मैं महाप्रबंधक कार्यालय से बाहर निकला। गुस्से के मारे मेरा चेहरा तमतमा रहा था। तो इस लड़की की दुम ने मेरे खिलाफ़ महाप्रबंधक से शिकायत कर दी। इसे तो ऐसी जगह ले जाकर मारूँगा जहाँ इसे पानी भी नसीब नहीं होगा। लेकिन नहीं, इसे मैं मारूँगा नहीं। मार दिया तब तो ये मुक्त हो जाएगी। इसे तड़पाऊँगा। बुरी तरह तड़पाऊँगा। इसे मैं मारूँगा नहीं।

उस रात मैंने एक सपना देखा। बड़ा अजीब सा सपना। इतना अजीब कि वो सपना मुझे आज भी ज्यों का त्यों याद है। मैं स्पिलवे की नींव के पास खड़ा था। जहाँ हज़ारों की संख्या में मज़दूर काम करते हैं वहाँ उस समय कोई नहीं था। सिर्फ़ मैं अकेला था। बिल्कुल अकेला। मैंने जोर से आवाज़ लगाई तो मेरी आवाज़ स्पिलवे के विशालकाय पियर से टकराकर वापस आ गई। अचानक ऊपर स्पिलवे के पुल पर से कलिका की आवाज़ आई, “यहाँ आ जाओ। मैं यहाँ हूँ।”

मैंने वहीं से एक छलाँग लगाई चालीस मीटर ऊँची छँलाग और सीधे उसके सामने पहुँच गया। वो आश्चर्य से मुझे देखने लगी और इसी पल का फ़ायदा उठाकर मैंने उसका गला दबाना शुरू कर दिया। उसने कोई विरोध नहीं किया। मैंने देखा उसकी आँखें धीरे धीरे अपने कोटरों से बाहर निकल आईं। उसकी गर्दन एक तरफ़ झूल गई। फिर मैंने उसे अपने कंधे पर उठाया और उसकी लाश को ले जाकर रामगंगा नदी में डाल दिया। मुझे पूरा यकीन था कि रामगंगा का तेज़ बहाव उसकी लाश के इतने टुकड़े करेगा कि वो पहचान में भी नहीं आएगी। तभी किसी ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने चौंक कर पीछे देखा। मेरे पीछे भी मैं ही खड़ा था। अचानक पीछे से मैंने मुझे एक जोर का धक्का दे दिया और मेरा शरीर रामगंगा नदी में गिरने लगा। मेरे शरीर में एक अजीब सी सनसनी हुई और मेरी नींद टूट गई।

“हे भगवान! कैसा अजीब सपना था। मैं और चाहे जो करूँ कभी उसकी हत्या नहीं कर सकता। ऐसे तो वो मुक्त हो जाएगी और मैं जेल चला जाऊँगा।” मैंने पानी पीते हुए सोचा।

(७)

अगले दिन सुबह मैंने उससे मोबाइल पर बात की। वो स्पिलवे गेट में हो रही वेल्डिंग की जाँच कर रही थी। मैं भी वहीं पहुँचा। वो ऊपर गेट के शीर्ष पर थी। नीचे से ऊपर जाने के लिए लोहे की पाइपों को वेल्ड करके सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। मैं रेलिंग का पाइप पकड़कर ऊपर चढ़ने लगा। तभी मेरी उँगली में कुछ घुसा। मैंने झुककर देखा तो पाया कि एक जगह वेल्डिंग ठीक नहीं हुई थी और पाइप का नुकीला सिरा बाहर निकला हुआ था जो ऊपर से दिखाई नहीं देता था। ऐसे में ये किसी को भी चुभ सकता था। मैंने आवाज़ देकर फ़ोरमैन को बुलाया। उससे दुबारा वेल्डिंग करने के लिए कहा और फिर से ऊपर चढ़ने लगा।

वो सफ़ेद हेल्मेट लगाये, धूप से चेहरा बचाने के लिए अपने हाथ से चेहरे पर छाँव किये हुए खड़ी थी। मैंने उसको आवाज़ देकर अपने पास बुलाया। मैं उसे उसके मज़दूरों और वेल्डरों के सामने नहीं डाँटना चाहता था। वो मेरे पास आ गई तो मैं बोला, “तो आखिरकार तुमने महाप्रबंधक से शिकायत कर ही दी न। तुम क्या समझती हो मैं इससे डर जाऊँगा। मैं अगर बिल का भुगतान न करवाना चाहूँ तो कोई मुझे मज़बूर नहीं कर पाएगा। अब तक तो मैं सोच रहा था कि एक दो महीने बाद पूरा भुगतान करवा दूँगा लेकिन अब देखता हूँ तुम्हारा भुगतान कौन करवाता है। कर लो, जहाँ शिकायत करनी हो कर लो।”

उसने मेरी तरफ़ उँगली करके कहा, “देखो सुरेश, मैंने तुम्हारे महाप्रबंधक से कोई शिकायत नहीं की। मैंने सिर्फ़ अपने उच्चाधिकारियों को वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। उसके बाद उन्होंने तुम्हारे उच्चाधिकारियों से बात की हो तो मैं नहीं जानती। मैंने केवल अपने कर्तव्य का पालन किया। तुम्हें भुगतान नहीं करना हो तो मत करो। लेकिन इतना जान लो कि दाम नहीं तो काम नहीं।”

इस लड़की से बहस करना बेकार था। ये कभी नहीं डरेगी। ये कभी हार नहीं मानेगी। मैं गुस्से में पैर पटकता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। तभी मैंने देखा कि कुछ सरिये जो स्पिलवे के कंक्रीट में आधे घुसे हुए थे सीढ़ियों के रास्ते में आने की वजह से मोड़ दिये गये थे। अब ऊपर का काम होने के बाद उनको सीधा करके आगे की कंक्रीट की जानी थी। ये आठ मिलीमीटर व्यास के सरिये थे जो आसानी से मोड़े जा सकते हैं। मैंने झुककर एक सरिया पकड़ा और उसे सीधा कर दिया अब उसका कुछ हिस्सा सीढ़ियों के भीतर आ गया। ऐसा होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। अक्सर ऊपर से कोई छोटा मोटा सामान गिर ही जाता था। ऐसे में उसका सरियों से टकराना और सरियों का थोड़ा सीधा हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। मैं नीचे उतर आया।

नीचे आकर मैंने उसे फ़ोन लगाया और उसे फ़ौरन नीचे आने के लिए कहा। जब वो सीढ़ियाँ उतरने लगी तो मैंने उसे फिर फोन लगाया और बोला, “चलो ठीक है, इस महीने मैं तुम्हारी छोटी मोटी ग़लतियाँ माफ़ कर देता हूँ। तुम दुबारा बिल भेज दो मैं पूरक बिल बनाकर तुम्हारा भुगतान करवा दूँगा। लेकिन अगले महीने से ऐसी ग़लतियाँ मेरे संज्ञान में नहीं आनी चाहिए।”

वो मुझसे बात करने में व्यस्त थी। उसका दाहिना हाथ मोबाइल थामने में व्यस्त था इसलिए वो बिना रेलिंग पकड़े उतर रही थी। उसने नीचे निकला सरिया नही देखा। सरिया उसके पैरों से उलझा, वो लड़खड़ाई और वो हो गया जिसकी मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। मैंने तो सोचा था कि वो मुझसे बात करने में व्यस्त रहेगी तो सरिया नहीं देख पाएगी और सरिये से उसकी पैन्ट का निचला हिस्सा फट जाएगा और उसके पैरों में थोड़ी बहुत खरोंच लग जाएगी। वो फटी पैन्ट पहनकर टहलेगी तो लोग उस पर हँसेंगे और इस तरह मैं अपने अपमान का बदला ले सकूँगा। लेकिन इस तरफ़ तो मेरा ध्यान गया ही नहीं था कि उसे बिना रेलिंग पकडे उतरना पड़ेगा और ऐसे में उसका बैलेंस बिगड़ जाएगा और वो सीधे नीचे गिर जाएगी। सीधे छ: सौ बत्तीस मीटर से छः सौ अठारह मीटर यानी चौदह मीटर नीचे।

(८)

वो सर के बल गिरी। उसका हेलमेट टूट गया और सर पर लगे जोरदार झटके से वो बेहोश हो गई। मैं दौड़ा। पागलों की तरह दौड़ा। वो बेहोश थी। मैंने उसे बाँहों में उठाया और फौरन अपनी गाड़ी में लिटा दिया। तीन मिनट बाद मैं साइट पर बने छोटे से चिकित्सालय में पहुँचा। वहाँ डॉक्टर ने उसकी मरहम पट्टी की और और कुछ इन्जेक्शन दिये। इन्जेक्शन देने के दस मिनट बाद भी जब उसे होश नहीं आया तो डॉक्टर को चिन्ता हुई। डॉक्टर ने टार्च जलाकर उसकी आँखों का निरीक्षण किया तो उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं। डॉक्टर ने कहा, “इन्हें जल्द से जल्द दिल्ली ले जाइये। शायद इनके मस्तिष्क को चोट पहुँची है वरना अब तक तो इन्हें होश आ जाना चाहिए था। जल्दी कीजिए वरना अगर दिमाग के अंदर खून रिस कर इकट्ठा हो रहा होगा तो खून के बढ़ते दबाव के कारण दिमाग़ क्षतिग्रस्त हो सकता है और ये कोमा में जा सकती हैं या इनकी मौत भी हो सकती है।”

तब तक उसकी कंपनी के परियोजना निदेशक वहाँ पहुँच चुके थे। मैंने उनसे बताया कि तुरंत हेलीकॉप्टर का प्रबंध करना पड़ेगा। उन्होंने अपने दिल्ली स्थित मुख्यालय से बात की पता चला कि हेलीकॉप्टर का इंतजाम करने में उनको सात आठ घंटे लग जाएँगें क्योंकि उनकी कंपनी जरूरत के मुताबिक हेलीकॉप्टर का प्रबंध करती है उनके पास कोई स्थाई हेलीकॉप्टर या किसी विमान कंपनी के साथ स्थायी अनुबंध नहीं है।

सात आठ घंटे में तो क्या से क्या हो जाएगा। गनीमत थी कि मेरी कंपनी का अनुबंध दिल्ली स्थित निजी विमान कंपनी पवनहंस से था। जिसको ऐसी आकस्मिक परिस्थितियों में फ़ोन कर देने भर से वो हैलीकॉप्टर भेज देते थे। मगर ये सुविधा केवल हमारी कंपनी के कर्मचारियों के लिए थी। मैंने उसकी कंपनी के परियोजना निदेशक को बताया तो उन्होंने स्वीकृति दी कि सारा खर्च उनकी कंपनी वहन करेगी मैं फ़ौरन हैलीकॉप्टर का इन्तज़ाम करूँ।

मैंने अपने महाप्रबंधक को सारी स्थिति बताई और ये भी बताया (मैं बताना तो नहीं चाहता था) कि मैं इस लड़की को बचपन से जानता हूँ और ये मेरे पड़ोस में ही रहती है। महाप्रबंधक ने कहा कि ठीक है हैलीकॉप्टर मँगवा लो लेकिन सबको यही बताना कि ये लड़की तुम्हारे रिश्ते में है। अगर कहोगे कि कान्ट्रैक्टर की कोई कर्मचारी है तो वो हैलीकॉप्टर भेजने में ना नूकुर करेंगे।

अगले कुछ मिनट मैं फोन पर व्यस्त रहा। उसके बाद मैंने कलिका के शरीर को एम्बुलेंस में लदवाया और ख़ुद भी उसके साथ बैठकर हैलीपैड की ओर चल पड़ा। डॉक्टर भी मेरे साथ ही था। वो बीच बीच में उसकी नब्ज़ देख लेता था।

हैलीपैड वहाँ से चालीस किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ शहर में था। पहाड़ों में ये दूरी तय करने में डेढ़ से दो घंटे लगते हैं लेकिन हमें सवा घंटे लगे। हैलीकॉप्टर हम लोगों से पाँच मिनट पहले ही वहाँ पहुँचा था। वहाँ से मैं और डॉक्टर कलिका को लेकर दिल्ली की तरफ उड़ गये।

(९)

कलिका के सर का ऑपरेशन दो घंटे चला। सर्जन ने बाहर निकलकर कहा, “आप लोगों को थोड़ी देर हो गई लेकिन इतनी ज़्यादा भी नहीं हुई कि हम कलिका को बचा न पाते। दिमाग में हो रहे खून के रिसाव से उसके दिमाग पर काफ़ी दबाव पड़ा और दिमाग के कई ऊतक क्षतिग्रस्त हो गए। लेकिन हमने उसकी खोपड़ी का एक हिस्सा काटकर निकाल दिया जिससे दिमाग पर पड़ रहा दबाव ख़त्म हो गया। कुछ दिन बाद जब उसके दिमाग़ में लगे घाव भर जाएँगें तो हम वो हिस्सा वापस लगा देंगे। फ़िलहाल तो वो कोमा में है और जब उसे होश आएगा तभी ठीक से कुछ बताया जा सकेगा कि दिमाग को कितना नुकसान हुआ है।”

जब तक कलिका का ऑपरेशन चल रहा था तब तक मुझे लग रहा था कि डॉक्टर बाहर निकलकर मुझसे कहेगा कि अब सबकुछ ठीक है आप कुछ दिनों बाद इन्हें घर ले जा सकते हैं। यह सोचकर मैंने अब तक कलिका के पिता को फोन नहीं किया था कि सबकुछ ठीक होने के बाद ही उन्हें बताऊँगा। अब मुझमें उन्हें यह बात बताने की हिम्मत नहीं थी। अपनी इस बेटी पर उन्हें बहुत नाज़ था। वो कहते थे कि मेरी ये बेटी बेटे से बढ़कर है। मैं उनसे कैसे कहता कि आपकी बेटी कोमा में है और होश में कब आएगी इस बात की कोई उम्मीद नहीं। दो दिन, दो हफ़्ते, दो साल या फिर कभी नहीं।

ये दिमाग भी बड़ी अजीब शै है। मज़बूत खोपड़ी से ढ़का हुआ लेकिन इतना मुलायम कि ख़ून का ज़रा सा दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकता। ये मजबूत खोपड़ी जो इसकी रक्षा करती है भीतर से ख़ून रिसने लग जाय तो इसके लिए नुकसानदेह हो जाती है।

डॉक्टर बता रहा था कि दिमाग़ ख़ुद की मरम्मत भी कर लेता है। यादों तक पहुँचने का पुल टूट जाय तो धीरे धीरे नये पुल बना लेता है। विदेशों में कई मरीज़ तो ऐसे भी देखे गये हैं जो दिमाग के एक हिस्से के नष्ट होने के बाद भी अपना सामान्य जीवन बिता रहे हैं।

आख़िरकार मैंने कलिका के पिताजी को फोन लगाकर सारी बात बताई। वो उड़कर आए और फूट-फूट कर रोए। मैं क्या कहता? मैं क्या करता? बस देखता रहा। सबकुछ होते देखता रहा।

अगर मैं ईश्वर में विश्वास करता तो यह कहकर अपने आप को तसल्ली दे देता कि जो हुआ सब ऊपर वाले की मर्जी से हुआ। अगर मैं किस्मत में यकीन करता तो यह कहकर ख़ुद को समझा लेता कि इसकी किस्मत में यही लिखा था। अगर मैं स्वर्ग-नर्क या आत्मा में यकीन करता तो आत्महत्या कर लेता ताकि अपने इस जघन्य कृत्य के बदले मुझे हमेशा हमेशा के लिए नर्क मिल जाय। अगर मुझे मेरे देश की न्याय प्रक्रिया में यकीन होता तो मैं अपने आपको कानून के हवाले कर देता। लेकिन मुझे पता था कि कानून के पास जाने पर वो मुझे सजा दे देगा और इस तरह मेरी और इसकी दोनों की जिन्दगी बर्बाद कर देगा। कानून सज़ा देने से ज़्यादा और कर भी क्या सकता है। आँख के बदले आँख निकाल लेना न्याय नहीं होता। जिसने आँख निकाली उसके खर्चे पर जिसकी आँख निकाली गई उसे नई आँख देना शायद न्याय के ज़्यादा करीब होगा। आँख के बदले आँख निकालना या जेल भेजना तो बदला लेना है और बदला लेना न्याय कब से हो गया। मैं इसे दुर्घटना मानकर भी अपने को क्षमा कर सकता था लेकिन मुझे पता है कि दुर्घटना होने की संभावना सुरक्षा उपकरणों से और सावधान रहकर बहुत कम की जा सकती है। मैं स्वयं से यह भी नहीं कह सकता कि वो रेलिंग पकड़े बिना उतरेगी यह बात मेरे दिमाग़ में नहीं आई थी क्योंकि मैंने सिगमंड फ़्रायड को पढ़ा है और उनकी ये बात बिल्कुल सही है कि वही बात आपके दिमाग़ में नहीं आती जिसे आप भूल जाना चाहते हैं। अगर मैं कलिका से इतनी नफ़रत न करता तो ये हो ही नहीं सकता था कि ये बात मेरे दिमाग में न आती। मेरी नफ़रत ने मेरे दिमाग को मज़बूर कर दिया इस पर बात पर ध्यान न देने के लिए। अब तो जो कुछ करना होगा मुझे ख़ुद ही करना होगा।

(१०)

मैंने कार्यालय से एक महीने की छुट्टी ले ली। सुबह से शाम, शाम से रात, रात से सुबह बस इंतज़ार, इंतज़ार और इंतज़ार। ऑपरेशन के दौरान ही कलिका को पूरी तरह गंजा कर दिया गया था। दो हफ़्ते बाद जब डॉक्टरों को लगा कि उसके मस्तिष्क में लगा घाव भर चुका है और मस्तिष्क की सूजन खत्म हो चुकी है तब उन्होंने कलिका की खोपड़ी के काटे गये हिस्से को वापस जोड़ दिया। अब हम सबको इन्ज़ार था दिमाग़ के चमत्कार का।

पूरे एक महीने बाद जब हम सबकी उम्मीदें धुँधली हो चुकी थीं। इस ब्रह्मांड की सबसे जटिल संरचना ने अपनी करामात दिखाई। कलिका को होश आ गया। लेकिन वो बहुत कुछ भूल गई थी। उसकी पुरानी यादों तक जाने के लिए दिमाग ने जो पुल बना रखे थे उनमें से अधिकांश टूट चुके थे। जिस दिन मैंने उससे कहा था कि लड़कियों के दिमाग का आयतन लड़कों के दिमाग से कम होता है ठीक उस दिन तक की सारी बात भूल चुकी थी। उसे इतना ही याद था कि मैं उसका दोस्त था और हम दोनों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी रहती थी। उसके मन में मेरे लिए कड़वाहट उस दिन से पहले पैदा नहीं हुई थी।

मेरे बारे में भूलने के साथ साथ वो अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई लिखाई भी भूल चुकी थी। इसके अलावा उसके बाएँ हाथ-पाँव भी काम नहीं कर रहे थे। उसकी तात्कालिक स्मरण शक्ति पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा था। शुरू मे तो वो लड़खड़ा लड़खड़ा कर बोलती थी लेकिन कुछ दिनों बाद वो साफ़ साफ़ बोलने लगी। उसकी बहन उसे पकड़कर बाथरूम तक ले जाती थी और वापस लाती थी। मैं दिन भर बैठा उससे बातें करता रहता था। जब मैं उसे बताता था कि कैसे उसने इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास की और इंजीनियरिंग में अपने क्लास की टॉपर रही तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे। दर’असल डॉक्टर ने मुझे कहा था कि इन्हें वो सारी पुरानी बातें बताइये जो ये भूल चुकी हैं इससे इनके दिमाग को पुरानी यादों तक नए पुल बनाने में आसानी होगी। ये समझ लीजिए कि आप जो बताएँगे वो उस पुल के लिए सीमेंट और रेत का काम करेगा। उसमें पानी इनका दिमाग़ ख़ुद मिला लेगा और पुरानी यादों तक पहुंचने के लिए नया पुल बना लेगा।

अब मैं उसे कैसे बताता कि हम दोनों एक दूसरे से नफ़रत करते थे। बेपनाह नफ़रत। वो सीमेंट और रेत जो उसके दिमाग को चाहिए था उसमें ये नफ़रत भी एक अवयव थी जो मैंने उसमें से निकाल ली थी। उसका दिमाग पुल बनाने का प्रयास करता था जो कभी कभी उसकी आँखों में उभरी चमक से मैं महसूस कर लेता था। लेकिन नफ़रत के अभाव में वो पुल बार बार टूट जाता था। एक दिन उसने कहा कि वो आगे पढ़ना चाहती है। पर अब इंजीनियरिंग करने की उसकी उम्र निकल चुकी थी। यदि वो फिर से आगे पढ़ना चाहती भी तो तात्कालिक स्मरण शक्ति कमज़ोर होने से ज़्यादा से ज़्यादा एक औसत दर्ज़े की विद्यार्थी बनकर रह जाती। मैं उसके गंजे सर और लकवाग्रस्त शरीर को देखता और सोचता कि ये मर गई होती तो अच्छा होता। लेकिन इसके न मरने की कामना भी तो मैंने ही की थी बस मुझे ये नहीं पता था कि याददाश्त खोकर ये उस नफ़रत और उससे जुड़े हुए दर्द को भूल जाएगी और मैं अकेला रह जाऊँगा उस नफ़रत का बेपनाह दर्द भुगतने के लिए।

(११)

धीरे धीरे मेरी एक महीने की छुट्टी ख़त्म होने को आ गई। मैंने डॉक्टर से बात की तो उसने कहा “एक दो दिन बाद आप इन्हें घर ले जा सकते हैं। इन्हें पुरानी बातें याद दिलाने की कोशिश करते रहिए। धीरे धीरे इनकी याददाश्त भी वापस आ जाएगी और इनकी बायीं तरफ़ के अंग भी काम करने लग जाएँगें।”

मैं बोला, “कितने दिनों में ऐसा होगा, डॉक्टर साहब।”

डॉक्टर बोला, “दिनों में? ऐसा होने में कम से कम पाँच-छः साल लगेंगे। इससे ज़्यादा भी लग सकते हैं।”

मैंने जाकर कलिका के पिता को बताया। वो रोने लगे। बोले, “हे भगवान, तूने मेरी बेटी की जिन्दगी बर्बाद कर दी। इससे तो अच्छा तूने उसे मौत ही दे दी होती।”

वो बोलते रहे, मैं सुनता रहा। वो रोते रहे, मैं टूटता रहा। वो चुप हुए तो मैंने एक निर्णय लिया। बड़ा ही अजीबोगरीब निर्णय। मैं कलिका के पास गया। उसकी बहन उससे बात कर रही थी। मैंने उसे थोड़ी देर के लिए बाहर जाने को कहा। वो चली गई तो मैं कलिका से बोला, “कलिका, तुम्हारी तबीयत ख़राब थी इसलिए मैंने तुम्हें एक बात नहीं बताई।”

वो बोली, “कौन सी बात?”

मैं बोला, “सच तो ये है कि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और तुम भी मुझसे बहुत प्यार करती हो। हम दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया था और घरवालों को बताने ही वाले थे कि ये दुर्घटना घट गई।  मैं तुम्हें अब भी उतना ही प्यार करता हूँ। क्या तुम्हें सचमुच कुछ भी याद नहीं।”

वो बोली, “प्यार-व्यार तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूँ कि तुम मुझे बचपन से अच्छे लगते थे इसलिए मैं तुमसे प्यार कर बैठी होऊँ तो कोई बड़ी बात नहीं।”

मेरे दिमाग को झटका लगा। ये बचपन से मेरे प्रति आकर्षित थी और मैं बचपन से ही इससे नफ़रत करता था। मैं तो समझता था कि ये भी मुझसे उतनी ही नफ़रत करती होगी जितनी मैं इससे। बहरहाल मेरी मुश्किल आसान हो गई थी। उससे बात करने के बाद मैं सीधा उसके पिता के पास गया और बोला, “अंकल आप को पता नहीं है कि मैं और कलिका बचपन से ही एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। हम लोग शादी करने के लिए आपसे और पिताजी से बात करने ही वाले थे कि ये दुर्घटना हो गयी। अब कलिका स्वस्थ हो गई है तो मैं चाहता हूँ कि हम दोनों का विवाह जल्द से जल्द हो जाय। मेरे साथ रहने से उसकी याददाश्त भी ज़ल्द वापस आ जाने की संभावना बढ़ जाएगी।”

उसके बाद वही हुआ जो मैंने चाहा। कलिका की मुझसे शादी हो गई। उसके ठीक होने तक देखभाल करने के लिए उसकी माँ भी आकर मेरे साथ ही रहने लगी। हर महीने घर से कोई न कोई आने लगा। कलिका की तात्कालिक स्मरण शक्ति कुछ महीनों में ठीक हो गई और साल भर बीतते बीतते उसके लकवाग्रस्त अंगों में भी काफ़ी सुधार हो गया। अब वो अपने आप चलने फिरने लगी थी। धीरे धीरे उसने घर का सारा काम काज सँभाल लिया। उसकी माँ बहुत खुश थी कि उसकी बेटी की गृहस्थी बस गई। फिर एक दिन उसकी माँ भी वापस चली गई।

(१२)

सब खुश थे। कलिका के घरवाले, मेरे घरवाले, कलिका, सब खुश थे। सिर्फ़ मैं खुश नहीं था। मुझे पता था कि जब तक मैं कलिका को सब सच सच नहीं बता देता उसकी याददाश्त वापस आने की संभावना नगण्य है। अब तक मैं उम्मीद लगाये हुए था कि शायद उसकी याददाश्त बिना मेरे कुछ बताए ही वापस आ जाए। लेकिन समय बीतने के साथ साथ मेरी ये उम्मीद भी धुँधली पड़ती जा रही थी। कभी कभी मैं सोचता कि जैसे सबकुछ चल रहा है चलने दूँ लेकिन मेरा दिमाग़ इसके लिए राज़ी नहीं होता था। वो बार बार कहता था कि एक बेहद ख़ूबसूरत और तेज़  दिमाग को इस तरह अपने फ़ायदे के लिए कैद करके रखने का मुझे कोई हक नहीं है। ये दिमाग़ भी न, जब अड़ जाता है तो इतना परेशान कर देता है कि इसकी बात माननी ही पड़ती है। आखिरकार एक दिन मैंने कलिका को सबकुछ बताने का निर्णय ले लिया।

मैं बोलता जा रहा था और वो चुपचाप सब सुनती जा रही थी। उसके चेहरे पर अजीबोगरीब भाव आ जा रहे थे। यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई कि वो सरिया मैंने मोड़ा था जिससे उलझकर वो गिरी थी। जब रामकहानी ख़त्म हुई तो वो एक झटके से उठी और दूसरे झटके से जमीन पर गिर पड़ी। बो बेहोश हो गई थी।

जब उसे होश आया तो अपने साथ उसकी स्मृति को भी वापस ले आया। उसका दिमाग टूटे हुए पुल बना चुका था और अब उसे दुर्घटना होने तक की सारी बातें याद थीं। लेकिन दुर्घटना के बाद से लेकर अब तक की सारी बातें वो भूल चुकी थी। वो भूल चुकी थी कि वो मेरी पत्नी है। उसके कोमा में रहने के दौरान दिमाग पर लगी चोटों के बारे में जो कुछ पढ़ा था उससे मैंने पहले से ही ये अनुमान लगा लिया था कि भविष्य में ऐसा ही कुछ होने वाला है। वैसे भी मेरा उद्देश्य उसे कैद करके रखना कभी नहीं था। मैंने जो कुछ भी किया था सिर्फ़ इसलिए किया था कि मैं उसे फिर से पहले जैसी बना सकूँ। उसे उसकी खोई हुई ज़िन्दगी वापस दे सकूँ।

मैंने उसके पिता को फोन किया। उनको बता दिया कि कलिका को सारी पुरानी बातें याद आ गई हैं मगर वो दुर्घटना के बाद की सारी बातें भूल चुकी है। मैंने उन्हें चेतावनी भी दी कि कलिका को दुर्घटना के बाद की बातें याद दिलाने की कोशिश न की जाय वरना हो सकता है कि उसकी याददाश्त फिर से चली जाय। उनको ज़ल्द से ज़ल्द आने के लिए कहकर मैंने कलिका की कम्पनी के परियोजना निदेशक से बात की। उन्होंने कहा कि वो कलिका का दुबारा साक्षात्कार लेने के लिए तैयार हैं और इस बार वो उसे अपने दिल्ली स्थित कार्यालय में ही रखेंगे। कलिका का साक्षात्कार तो महज़ औपचारिकता भर था। कलिका के परियोजना निदेशक उसकी कर्मठता और बुद्धिमत्ता से परिचित थे ऊपर से उन्हें यह बात भी पता थी कि वो मेरी बात न मानने की स्थिति में नहीं हैं।

कलिका के पिताजी ने मेरी बात नहीं मानी। उन्होंने कलिका को सब बता दिया। उन्हें हमारे बीच की नफ़रत के बारे में कुछ भी नहीं पता था। कलिका पर इसका उल्टा असर हुआ। वो केवल वही बातें जान पाई जो उसके पिताजी जानते थे। उसे लगा कि मैंने उसकी याददाश्त जाने का फ़ायदा उठाकर उसके साथ शादी की। मैं जो नहीं चाहता था वही सब हो रहा था। उसने अपने पिताजी को कह दिया कि ऐसे विवाह का कोई मतलब नहीं जो उसे याद ही नहीं है। उसके पिताजी ने मुझसे कहा कि मैं उसे समझाऊँ। मैं क्या समझाता? मेरे समझाने से वो और चिढ़ती, मुझे और बुरा समझती।

आजकल वो दिल्ली में है। सुबह दफ़्तर जाती है तो शाम को देर से घर आती है। उसकी माँ उसकी देखभाल के लिए उसके साथ ही रहती है। कलिका को साल की सबसे अच्छी कर्मचारी होने का पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। मैं भी सुबह से शाम तक यही करता हूँ। हम दोनों इंसान से मशीन बन गये हैं। दिन-ब-दिन अपनी कम्पनी में और ज़्यादा महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। शायद एक दिन हम अपनी अपनी कंपनी के प्रबंध निदेशक भी बन जाएँ।

स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूँ

लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है

मैं उसकी छांव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूँ

–    गीत चतुर्वेदी

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कहानी : महासम्मोहन   Leave a comment

(१)

विधान लोनी का जन्म 26 जनवरी 1950 को बनारस के जिला अस्पताल में हुआ था। उसके पिता निधान लोनी विश्वनाथ मंदिर के पास चाय बेचा करते थे। लोग कहते हैं कि विधान लोनी में उस लोदी वंश का डीएनए है जिसने उत्तर भारत और पंजाब के आसपास के इलाकों में सन 1451 से 1526 तक राज किया था। जब बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर भारत में मुगलवंश की स्थापना की तब इब्राहिम लोदी का एक वंशज बनारस भाग आया और मुगलों को धोखा देने के लिए लोदी से लोनी बनकर हिन्दुओं के बीच हिन्दुओं की तरह रहने लगा।

विधान लोनी का बचपन विश्वनाथ मंदिर के आसपास ही बीता। अपने घरवालों और पड़ोसियों की देखा देखी वो भी भोलेनाथ का परमभक्त बन गया। विधान बचपन से ही बड़ा कल्पनाशील था। पढ़ने लिखने में तो उसका मन ज्यादा नहीं रमता था लेकिन वाद विवाद में उसे बड़ा मज़ा आता था। सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी, किस्सा-ए-तोता मैना, किस्सा-ए-हातिमताई आदि किताबें जो विश्वानाथ मंदिर के आसपास फुटपाथ पर बैठने वाले लोग बेचा करते थे उन्हें पढ़ने के बाद उन्हीं कहानियों में थोड़ा फेरबदल करके वो अपने दोस्तों को सुनाया करता। धीरे धीरे वो अपने मन से भूत प्रेतों की कहानियाँ गढ़कर अपने दोस्तों को सुनाने लगा। उसके सुनाने का अंदाज़ इतना अनूठा था कि उसके दोस्तों की डर के मारे सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी और वो समझते थे कि ये घटना विधान के साथ सचमुच घटी है।

एक दिन विधान अपने घर से थोड़ी दूर पर स्थित बनारसी साड़ियों की एक बड़ी दूकान पर चाय देकर आ रहा था कि एक साइकल वाले ने पीछे से उसे टक्कर मार दी। उसके हाथ से गिलास रखने की जाली छूटकर गिर गई और सारे गिलास टूट गये। घर पहुँचने पर उसके पिता ने यह कहकर उसकी पिटाई कर दी कि वो अपनी कल्पना में खोया रहा होगा इसीलिए उसको सामने से आती साइकल नहीं दिखी होगी। पिटाई तो विधान की पहले भी हुई थी मगर इस बार उसके पिता ने उस पर जो बेबुनियाद इल्ज़ाम लगाया था वो विधान लोनी को सहन नहीं हुआ और वो अपने पिता की दूकान छोड़कर गंगा की तरफ भाग निकला यह कहते हुए कि मैं गंगा में डूबकर मरने जा रहा हूँ। उसका पिता निधान लोनी जानता था कि विधान को तैरना अच्छी तरह आता है इसलिए उसके डूबने का कोई खतरा नहीं है। उसने सोचा कि अभी थोड़ी देर बाद जब गुस्सा उतरेगा तो विधान हर बार की तरह इस बार भी फिर से काम पर आ जाएगा। मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था।

काफी देर तक इधर उधर घूमता विधान मणिकर्णिका घाट पर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसे भूख लगी। तब उसने सोचा कि बस बहुत हो गया अब घर वापस चलना चाहिए। ठीक उसी समय किसी ने पुकारा, “बम बम भोले! अरे बच्चा जरा इस कमंडल में पानी तो भरकर ला। साधू की सेवा करेगा तो भोलेनाथ तुझ पर प्रसन्न होंगे।”

विधान मुड़ा तो देखा चार बाबाओं की एक टोली अपने लिए खाना पका रही है। उसने साधू से कमंडल लिया और घाट के किनारे लगी नाव पर चढ़कर नाव की दूसरी तरफ से कमंडल को गंगा में डुबोकर पानी भर लाया। साधू ने उसके चेहरे की तरफ देखकर पूछा, “बच्चा भूख लगी है क्या?”

विधान के हाँ में सर हिलाने पर बाबा ने जस्ते की एक पुरानी घिसी पिटी थाली निकाली और विधान को खाने के लिए खिचड़ी परोस दी। भूखा विधान थोड़ी ही देर में सारी खिचड़ी चट कर गया। बाबा ने फिर पूछा, “बच्चा, हम तो तीर्थयात्रा पर निकले हैं इसके बाद संगम, फिर अयोध्या फिर नैमिषारण्य और उसके बाद हरिद्वार जाएँगें। तुझे अगर हमारे साथ चलना हो तो चल।”

विधान लोनी का गोरा चेहरा खुशी से दमक उठा। यही तो वह चाहता था। कहानियों में नये नये स्थानों के बारे में पढ़कर वो बड़ा रोमांचित होता था। अक्सर उसका मन करता कि उड़ कर जाए और नये नये जंगलों, नदियों और पर्वतों पर घूमे। क्या पता कहीं कोई छुपा हुआ खजाना उसे मिल जाये और उसकी जिंदगी बदल जाये या फिर घूमते घूमते कहीं भगवान से ही भेंट हो जाये तो उसका धरती पर जन्म लेना सफल हो जाये। यही सब सोचकर और अपने पिता की डाँटमार से कुछ दिनों तक बचा रहने के लिए विधान ने हाँ कर दी। उस समय विधान की उम्र केवल तेरह साल की थी और वो सरकारी विद्यालय में कक्षा आठ का छात्र था।

(२)

जनवरी 1963 की उस सर्द रात को इलाहाबाद स्टेशन के प्रतीक्षालय में विधान ने एक अजीबोगरीब स्वप्न देखा। उसने देखा कि वो एक पक्षी की तरह अपने हाथ पाँव हिलाते हुये आकाश में उड़ता जा रहा है। सूरज धीरे धीरे लाल होता जा रहा है और उसकी लाली धीरे धीरे धरती के पेड़ों को भी लाल रंग से रँगती जा रही है। इस लाल प्रकाश में नहाया वो उड़ता जा रहा है। अचानक उसको लगा कि वो अपने हाथ पाँव नहीं हिला पा रहा है और इस वज़ह से उसके उड़ने की शक्ति समाप्त हो गई है और वो तेजी से धरती की तरफ गिर रहा है। जमीन पर लाल रंग के पानी वाली एक नदी बह रही है वो उसी में गिरने वाला है। फिर उसने देखा कि वो उस लाल पानी वाली नदी में तैरने लगा है। उसे तैरने में खूब मजा आ रहा है और वो अपनी पूरी ताकत से तैरता जा रहा है। अचानक उसे लगा कि वो तैरते तैरते बहुत थक गया है। उसने अपने हाथ पाँव चलाने बंद कर दिये हैं मगर फिर भी वो तैर रहा है। यूँ तैरते तैरते जल्द ही उसे नींद आ गई और वो सपने में सो गया।

हुआ ये कि इलाहाबाद स्टेशन पर जब साधुओं ने ठंड से बचने के लिए चिलम जलाई तो विधान ने एक नया अनुभव हासिल करने के लिए उनके साथ चिलम के दो चार कश लगा लिये। बीड़ी और सिगरेट का आनंद तो वो पहले ही अपने दोस्तों के साथ एक दो बार छुपकर ले चुका था लेकिन गाँजा इसके पहले उसने कभी नहीं पिया था। जल्द ही उसे चक्कर आने लगे और कुछ ही देर बाद वो आधी बेहोशी की स्थिति में पहुँच गया। धीरे धीरे उसे नींद भी आ गई मगर सपने लगातार आते रहे। जिस साधू ने उसे भोजन दिया था थोड़ी देर बाद वो भी विधान के साथ उसी कंबल में लेट गया और उसके बाद विधान ने वो सपना देखा जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। इस सपने के साथ एक अजीब बात ये थी कि जागने पर भी ये सपना विधान को पूरी तरह याद था।

अगले दिन अयोध्या की एक धर्मशाला में गाँजा पीकर सोने के बाद विधान ने फिर वैसा ही सपना देखा। उसे आश्चर्य हुआ कि एक ही सपना वो दो बार कैसे देख सकता है क्योंकि आज तक उसके साथ ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उसने एक ही सपना जस का तस दो बार देखा हो। कुछ दिनों तक यही चलता रहा। विधान गाँजा पीकर सोता और वही सपना फिर से देखता। अयोध्या से साधुओं की वो टोली नैमिषारण्य पहुँची। वहाँ कुछ दिनों तक तो विधान दिन भर जंगलों में घूमता फिरता रहा फिर धीरे धीरे उसे बोरियत होने लगी। उसने साधुओं से कहा कि वो अपने घर लौटना चाहता है। साधुओं ने विधान को पानी लाने भेजकर आपस में सलाह मशविरा किया और विधान के लौटने पर उसे बताया कि अब हम लोग ऋषिकेश जा रहे हैं। अगर तुम्हें पहाड़ देखने का शौक है तो साथ चलो वरना अगली रेलगाड़ी से अपने घर को लौट जाओ।

विधान को घर की याद भी आ रही थी और वो पहाड़ भी देखना चाहता था। अंत में सोचविचारकर उसने यही निर्णय लिया कि ऋषिकेश में पहाड़ देखकर वह सीधा बनारस लौट जाएगा। इस तरह वो ऋषिकेश पहुँचा। शुरू शुरू में कुछ दिन तो उसे पहाड़ बहुत अच्छे और अनूठे लगे मगर जल्द ही वो पहाड़ों से भी ऊब गया। फिर एक दिन वो बिना साधुओं को कुछ बताए हरिद्वार भाग आया और वहाँ से बनारस के लिए ट्रेन पकड़ ली। ट्रेन के जनरल डिब्बे में बैठकर वो बेटिकट बनारस पहुँचा।

 (३)

अब तो विधान को जब भी मार पड़ती वो कुछ दिनों के लिए घर से गायब हो जाता। कभी किसी दोस्त के यहाँ रुक जाता, कभी किसी रिश्तेदार के यहाँ भाग जाता। विधान की आवारागर्दी देखकर धीरे धीरे निधान लोनी को यकीन होने लगा कि विधान अपने जीवन में कुछ कर नहीं पाएगा। वो भी उन्हीं की तरह चाय बेचेगा। अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि विधान की शादी कर देनी चाहिए वरना ये बार बार घर से भागता रहेगा। यह सोचकर उन्होंने अपने मित्रों और रिश्तेदारों में ये बात फैलानी शुरू कर दी कि वो विधान की शादी जल्द से जल्द कर देना चाहते हैं। बात फैली तो विधान के लिए रिश्ते आने भी शुरू हो गये। अंत में निधान ने सारनाथ की एक लड़की से विधान का विवाह तय कर दिया।

जब विधान को ये बात पता चली तो वो जाकर अपने पिता से बोला, “पिताजी अभी मेरी उम्र ही क्या है। अभी तो मुझे सारा देश घूमना है और हो सके तो विदेश भी जाना है। मौका मिलेगा तो मैं आगे पढ़ना भी चाहता हूँ। आप इतनी जल्दी मेरा विवाह क्यों कर देना चाहते हैं।”

निधान बोले, “सारा देश घूमने के लिए पैसा क्या तेरा बाप देगा। मैं यहाँ सुबह से शाम तक खटता हूँ तब किसी तरह से परिवार को दो जून की रोटी नसीब होती है। तुझे मेरे काम में हाथ बटाना चाहिए ताकि तेरे बूढ़े होते जा रहे पिता पर बोझ थोड़ा कम हो। देश घूमेंगे। मेरी सात पुश्तों में भी कोई देश घूमने नहीं गया। और घूम कर करना भी क्या है। हम तो दुनिया की सबसे पवित्र और सबसे अच्छी जगह पर रह रहे हैं। बनारस से अच्छी जगह दुनिया में और कौन सी है। भोलेनाथ और गंगा दोनों बगल में हैं। जब तक जिन्दा रहो रोज गंगास्नान करके भोले का दर्शन करो और मरो तो सीधा स्वर्ग। आदमी को और क्या चाहिए जीवन में।”

विधान बोला, “पिताजी, अभी मेरी शादी मत कीजिए। मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ। पाँव पड़ता हूँ।”

निधान ने सोचा कि अचानक शादी तय हो जाने पर सारे लड़के थोड़ा बहुत नर्वस हो जाते हैं। विधान के साथ भी यही हो रहा है। दो चार दिन में सब ठीक हो जाएगा।

विधान अपने बाप के चेहरे को देखकर समझ गया कि उसकी बात का कोई असर उसके पिता पर होने वाला नहीं है। वो घर से भाग जाना चाहता था लेकिन कई बार घर से भागकर वो जान चुका था कि यहाँ घर पर कम से कम भूख लगने पर समय से खाना तो मिल जाता है। बाहर तो खाने तक का कोई ठिकाना नहीं होता।

विधान बड़ा उदास रहने लगा। अब न तो खाने में उसका मन लगता था, न आवारागर्दी में, न गंगा में, न भोलेनाथ में। उन दिनों प्रदेश में चुनाव होने वाले थे। ऐसे में उसके दोस्त ने उसे धर्मसेवा संघ का सदस्य बनने के लिए कहा। धर्मसेवा संघ को बने ज़्यादा दिन नहीं हुए थे और उसके उच्च पदाधिकारी ऐसे नवयुवकों की खोज में थे जो निःस्वार्थ भाव से धर्म की सेवा में अपना तन और मन अर्पित कर सकें। संघ का मुख्य काम धर्म का प्रचार प्रसार करना और आपदा के समय लोगों की मदद करना था मगर यह भी सच था कि संघ एक राष्ट्रवादी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ था और चुनाव के समय उस दल का प्रचार प्रसार और उस दल के लिए लोगों से वोट माँगने का काम करता था।

संघ का सदस्य बनने के बाद विधान का ज़्यादातर समय संघ के कार्यों में बीतने लगा। इससे उसके मन की उदासी धीरे धीरे कम होने लगी। संघ के उच्चाधिकारियों से उसकी जान पहचान दिनोंदिन बढ़ने लगी। ऐसे ही समय में एक दिन विधान की शादी हो गई। निधान ने विधान के लिए बड़ी सुन्दर पत्नी तलाश की थी ताकि विधान ज़्यादातर समय घर पर ही रहे और धीरे धीरे घर तथा दूकान के कामों में उसका हाथ बँटाने लगे।

विधान ने अपनी पत्नी को सुहागरात को ही साफ साफ बता दिया कि स्त्रियाँ उसे आकर्षित नहीं करतीं। उसे बलिष्ठ और हट्टे कट्टे पुरुष आकर्षित करते हैं। उसने यह शादी केवल अपने पिता के दबाव में आकर की है। वो उस तरह का भी पुरुष नहीं है जिसे पुरुषों और स्त्रियों में समान रूप से रुचि होती है।

विधान की पत्नी का नाम सुशीला था। वो सारनाथ के पास एक गाँव से आयी थी और उसकी शिक्षा केवल पाँचवीं कक्षा तक ही हुई थी। उसके माँ बाप बचपन में ही गुज़र चुके थे और उसके चाचा ने उसे पाल पोस कर बड़ा किया था। वो तो अपने माँ बाप की इकलौती लड़की थी मगर चाचा के चार बेटियाँ और थीं। उसके चाचा ने सारनाथ में एक पान की दूकान खोल रखी थी जिससे बड़ी मुश्किल से सबका गुज़ारा चल पाता था। अभी उन्हें चारों लड़कियों की शादी भी करनी थी। विधान से सारी बात जानकर उसे झटका तो लगा लेकिन उसके पास विधान के साथ रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

(४)

दिन बीतने लगे। विधान ज़्यादातर समय घर के बाहर ही रहने लगा। वो तन मन धन से संघ के कार्यों के लिए समर्पित हो गया। निधान को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी सुन्दर पत्नी मिलने के बाद भी विधान घर पर नहीं रहता। निधान ने विधान की माँ को ये बात बताई तो वो भी बोली कि आप ठीक ही कहते हैं अब तक तो बहू को गर्भवती हो जाना चाहिए था। एक बच्चा अगर घर में होता तो विधान का भी मन घर में लगा रहता।

एक दिन जब विधान घर आया तो निधान ने उसको और सुशीला को अपने पास बुलाकर पूछा, “बहुत समय हो गया अब ये बताओ तुम लोग मुझे दादा कब बना रहे हो”।

विधान की माँ ने अपने बेटे का पक्ष लेते हुए बोली, “अब तक तो तुम्हें बच्चा हो जाना चाहिए था सुशीला कहीं तुम बाँझ तो नहीं हो।“

सुशीला क्या कहती? वो फूट-फूट कर रोने लगी। विधान की माँ ने समझा कि सुशीला सचमुच बाँझ है इसलिए रो रही है। उन्होंने सुशीला को खरी खोटी सुनानी शुरू कर दी। सुशीला कुछ देर तक तो सब सहती रही फिर आखिर उसके मुँह से निकल ही गया कि आपके बेटे को स्त्रियों में नहीं पुरुषों में दिलचस्पी है। इसके बाद तो सब को मानो साँप सूँघ गया।

पत्नी से घर वालों के सामने अपमानित होने के बाद विधान फौरन घर से बाहर निकल गया और गंगा की सीढ़ियों पर बैठकर आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगा। सोचते सोचते उसे लगा कि मरने से पहले एक भार भोलेनाथ का दर्शन कर लेना चाहिए। यह विचार मन में आते ही वो विश्वनाथ मंदिर की तरफ निकल पड़ा। दर्शन करने के बाद मंदिर के पिछवाड़े पहुँचा जहाँ भोलेनाथ पर चढ़ाये हुए फूल, धतूरे इत्यादि फेंके जाते थे। उसने उस कचरे में से कुछ धतूरे और कनेर के फल इकट्ठा कर लिये। फिर गंगा तट पर बैठकर उसने धतूरे और कनेर के बीज निकाले और वहीं पड़ा एक पत्थर उठाकर उसे घाट की सीढ़ियों पर पीस डाला। उस चूर्ण के अत्यन्त कड़वे स्वाद के बावजूद उसने गंगाजल की मदद से उसे निगल लिया। फिर वो गंगा के किनारे किनारे सीढ़ियों पर चलते चलते ऐसी जगह पहुँचा जहाँ इक्का दुक्का लोग ही बैठे थे। कुछ ही क्षणों बाद विधान को उल्टियाँ होने लगीं। पता नहीं यह गंगाजल का असर था या विधान ने कुछ ज्यादा ही मात्रा में जहरीले बीजों का सेवन कर लिया था। इन उल्टियों से उसके पेट में गया अधिकांश जहरीला पदार्थ बाहर आ गया। धीरे धीरे बचे हुए जहरीले पदार्थों ने उसके दिमाग पर असर करना शुरू कर दिया। उसने देखा कि मछलियों के बड़े बड़े पंख निकल आये हैं और वो पानी में न तैरकर हवा में उड़ रही हैं। सारी नौकाएँ रथों में बदल गई हैं और पानी पर चल रही हैं। गंगा के धारा के बीचोबीच से एक जटाधारी निकलकर उसकी ओर बढ़ रहा है। पास आने पर विधान ने देखा कि उस जटाधारी के गले से नाग लिपटा हुआ है। तब विधान को समझ आया कि ये जटाधारी और कोई नहीं स्वयं भोलेनाथ हैं।

विधान के पास आकर भोलेनाथ बोले,  “विधान वर माँगो।”

विधान बोला, “प्रभो मैं मर जाना चाहता हूँ। कृपया मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।”

भोलेनाथ बोले, “वत्स, अभी तुम्हारी मृत्यु का समय नहीं आया है इसलिए कोई और वरदान माँगो।”

यह सुनकर विधान को झटका लगा कि अभी उसे और जीना पड़ेगा। अपनी पत्नी से और अपमानित होना पड़ेगा और अगर बात मुहल्ले वालों को पता चल गई तो हर पल, हर क्षण, हर किसी से अपमानित होना पड़ेगा। उसने अपनी यह समस्या भोलेनाथ के सामने रखी। भोलेनाथ कुछ क्षण सोचते रहे फिर बोले, “वत्स इसका तो एक ही इलाज है कि मैं तुम्हें सम्मोहनी शक्ति प्रदान कर दूँ ताकि तुम सबको सम्मोहित करके इस बात फैलने से रोक सको। ठीक है मैं तुम्हारी जिह्वा को सम्मोहनी शक्ति प्रदान करता हूँ। अब तुम अपनी वाणी से किसी को भी सम्मोहित कर सकोगे। लेकिन इसके लिये तुम्हें निरंतर अभ्यास की आवश्यकता पड़ेगी। अभ्यास करते रहने से धीरे धीरे यह शक्ति बढ़ती जाएगी और एक दिन यह शक्ति इतनी बढ़ सकती है कि तुम अपनी वाणी से सारी दुनिया को सम्मोहित कर लो। सबकुछ तुम्हारे श्रम और लगन से किये गये अभ्यास पर निर्भर करता है। किन्तु ध्यान रहे तुम किसी को कभी बताना मत कि ऐसी कोई शक्ति तुम्हारे पास है। ऐसा करते ही तुम शक्तिहीन हो जाओगे। एक बात और, अब से आईना कम से कम देखना। इस शक्ति के साथ सबसे बड़ी समस्या यहीये होती है कि इसको धारण करने वाले के मन में आईना देखने की बड़ी प्रबल इच्छा होती है। अगर वो अपनी इस इच्छा पर काबू नहीं कर पाता तो आईना देखते देखते वो अपने प्रतिबिम्ब से बातें करने लगता है और उस स्थिति में वो स्वतः सम्मोहित हो जाता है। अपने ही सम्मोहन में जकड़ा व्यक्ति कुछ ही देर में इतना आत्ममुग्ध हो जाता है कि उसे अपने अलावा बाकी सारी दुनिया तुच्छ लगने लगती है। अंततोगत्वा वो इस दुनिया से मुक्ति पाने का फैसला कर लेता है। इसलिए अब से तुम आईना कम से कम देखना।”

विधान बोला. “जैसी आपकी इच्छा प्रभो।”

इसके बाद विधान की चेतना लुप्त होती चली गई।

(५)

जब विधान को होश आया तो वो अपने बिस्तर में लेटा हुआ था। उसकी पत्नी उसके सिरहाने बैठकर पंखा झल रही थी। धीरे धीरे विधान को सबकुछ याद आना शुरू हो गया। अर्द्धविक्षिप्तावस्था में देखा गया स्वप्न विधान को ज्यों का त्यों याद था। विधान समझ नहीं पा रहा था कि जो कुछ उसने देखा था वो सपना था या सच इसलिए उसने सबसे पहले अपनी पत्नी पर ही सम्मोहनी शक्ति का इस्तेमाल करने का निर्णय लिया और बोला, “सुशीला आज भोलेनाथ ने मुझे निश्चित मृत्यु से बचा लिया। अब मैं अपना सारा जीवन उन्हीं को समर्पित कर देना चाहता हूँ। कल से मैं घर छोड़ दूँगा और देश भ्रमण पर निकल जाऊँगा। अब गृहस्थ आश्रम से मेरा कोई लेना देना नहीं होगा। अब मैं केवल धर्म के प्रचार और प्रसार में अपना सारा जीवन बिता दूँगा।”

सुशीला बोली, “ये तो बड़ी ख़ुशी की बात है। आप ऐसा ही कीजिए। धर्म और ईश्वर के लिए कार्य करते हुए आपको बहुत पूण्य मिलेगा और उसका आधा हिस्सा अर्द्धांगिनी होने के नाते मुझे भी मिलेगा। इस तरह से हम दोनों को  निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। इससे ज्यादा एक मनुष्य को और क्या चाहिए। मैं सदा आपको अपने मन मन्दिर का देवता मानकर पूजूँगी।”

विधान चौंक उठा। भले ही उसने अर्द्धविक्षिप्तावस्था में स्वप्न देखा हो मगर सम्मोहन शक्ति उसकी वाणी में सचमुच आ चुकी थी। उसने मन ही मन भोलेनाथ को धन्यवाद दिया और अगले ही दिन अपनी पत्नी को छोड़कर धर्मसेवा संघ के प्रचारक के रूप में देश भ्रमण पर निकल गया।

विधान देश भर में जहाँ जहाँ गया वहाँ वहाँ उसने अपनी वाणी से सम्मोहित करके बहुत सारे लोगों को धर्मसेवा संघ का सदस्य बन दिया। दस वर्षों तक विधान इसी तरह भटकता रहा और देश के कोने कोने से लोगों को घर्मसेवा संघ का सदस्य बनाता रहा। जब वह वापस लौटा तो उसकी मेहनत और लगन को देखकर उसे धर्मसेवा संघ का प्रदेश अध्यक्ष चुन लिया गया। निरंतर अभ्यास से उसकी वाणी में मौज़ूद सम्मोहन शक्ति बहुत बढ़ गई थी और अब वो अपनी वाणी से सैकड़ों लोगों को एक साथ सम्मोहित कर लेता था।

धर्मसेवा संघ में विधान लोनी का प्रभाव और काम देखकर राष्ट्रवादी पार्टी ने प्रदेश के अगले चुनावों का भार उसे सौंप दिया। ये उन दिनों की बात है जब आजादी के समय से चली आ रही पुरानी सरकार से प्रदेश के लोगों का मोहभंग हो चुका था और वो एक नई और ईमानदार सरकार चाहते थे। राष्ट्रवादी पार्टी को उन दिनों विधान सभा की अस्सी सीटों में से एक या दो सीटें मिला करती थीं। ऐसे में किसी को भी विधान से कोई चमत्कार की उम्मीद नहीं थी हाँ राष्ट्रवादी पार्टी के उच्चाधिकारी यह जरूर चाहते थे कि प्रदेश में पार्टी की स्थिति कुछ तो बेहतर हो और कम से कम इन विधान सभा चुनावों में वो दहाई के आँकड़े तक तो पहुँचें।

लेकिन विधान लोनी के मन में तो कुछ और चल रहा था। अब उसे यह अहसास होने लगा था कि उसकी सम्मोहन शक्ति क्या क्या गुल खिला सकती है। बनारस शहर से बाहर निकलकर सुल्तानपुर रोड़ पर आते ही एक बहुत पुरानी मस्जिद पड़ती थी। लोग कहते थे कि पहले इस मस्जिद की जगह एक शिव मंदिर था जिसे तुड़वाकर औरंगजेब ने यह मस्जिद बनवा दी थी। इस मस्जिद को औरंगी मस्जिद भी कहा जाता था। एक दिन विधान लोनी ने धर्मसेवा संघ के एक हजार कार्यकर्ताओं को उस मस्जिद से थोड़ी दूर एक मैदान में इकट्ठा किया और उनसे बोला, “आप तो जानते ही हैं कि भगवान भोलेनाथ की मुझपर असीम कृपा है। आज रात भोलेनाथ मेरे सपने में आये थे। उन्होंने कहा कि औरंगी मस्जिद जिस शिव मंदिर पर बनी है वो मुझे काशी विश्वनाथ के समान ही प्रिय है। उन्होंने हमें ये आदेश दिया है कि इस मस्जिद को तोड़कर हम यहाँ पर फिर से शिव मन्दिर का निर्माण करें।”

विधान के शब्दों की सम्मोहन शक्ति ने फ़ौरन अपना असर दिखना शुरू किया और एक हजार लोगों की भीड़ ‘हर हर महादेव’ का नारा लगाते हुए मस्जिद की ओर बढ़ गई। भीड़ को नियंत्रण करने के लिए लगाये गये पुलिसवाले भी विधान का भाषण सुनकर पूरी तरह सम्मोहित हो चुके थे। इस भीड़ ने देखते ही देखते मस्जिद का नामोनिशान मिटा दिया। जैसे जैसे ये खबर फैली देश भर में दंगे फैले। दंगों पर तो धीरे धीरे काबू पा लिया गया लेकिन इन दंगों से नफ़रत के बीज छिटककर देश के कोने कोने में फैल गये। चुनाव होते होते इन बीजों से नफ़रत के पेड़ उग आये। हवाएँ चलीं और इन पेड़ों से नफ़रत की खुशबू उड़-उड़कर देश भर में फैलने लगी। लोगों को हिन्दू मुसलमानों की लड़ाईयों के तमाम किस्से याद आने लगे और जिस राष्ट्रवादी पार्टी का प्रदेश में कुछ महीने पहले तक नामोनिशान नहीं था वो दो तिहाई बहुमत से सत्ता में आ गई। राष्ट्रवादी पार्टी ने प्रदेश स्तर के एक नेता को मुख्यमंत्री बना दिया।

(६)

विधान का कद धर्मसेवा संघ में बढ़ता ही चला गया। धीरे धीरे पाँच वर्ष बीत गये और अगला चुनाव नजदीक आ गया। नफ़रत के पेड़ अब मुरझा चुके थे। औरंगी मस्जिद तो तोड़ी जा चुकी थी लेकिन वहाँ शिव मंदिर अब तक नहीं बनाया जा सका था। अब धीरे धीरे लोगों की समझ में आने लगा था कि धर्म के नाम पर राष्ट्रवादी पार्टी ने उन्हें मूर्ख बनाया था ताकि वो सत्ता हासिल करने में कामयाब हो सके।

विधान को अहसास होने लगा था कि यदि ज़ल्द ही कुछ किया न गया तो इस बार राष्ट्रवादी पार्टी चुनाव हार जाएगी। उन्हीं दिनों राष्ट्रवादी पार्टी के अध्यक्ष का बनारस आना हुआ। उनके लिए सारा प्रबंध करने की जिम्मेदारी विधान को सौंप दी गई। विधान अपनी सेवा और अपनी वाणी में मौजूद सम्मोहन शक्ति से उन्हें यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो गया कि यदि विधान को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाय तो पार्टी इस बार भी प्रदेश का विधान सभा चुनाव जीत जाएगी। अध्यक्ष महोदय ने दिल्ली पहुँचते ही विधान को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। अब बारी थी विधान को अपनी वाणी में मौजूद सम्मोहन शक्ति का जलवा दिखाने की। वो ये बात भी समझ चुका था कि इस बार धर्म का मुद्दा नहीं चलेगा इसलिए इस बार उसने विकास को मुद्दा बनाया। गरीबों और किसानों से भरे हुए इस प्रदेश में लोगों को सुनहरे सपने के अलावा और क्या चाहिए था। हर तरफ विकास, विकास, विकास गूँजने लगा। विधान जहाँ भी चुनावी सभाएँ करता वहाँ लाखों की संख्या में लोग उसे सुनने आते और उसकी वाणी में मौजूद सम्मोहन शक्ति से पूरी तरह सम्मोहित होकर लौटते। जब तक चुनावों की घोषणा हुई पूरा प्रदेश विकास के जादूई गोले में झाँककर सम्मोहित हो चुका था। चुनाव हुए तो प्रदेश में अस्सी प्रतिशत का रिकार्ड मतदान हुआ।  प्रदेश की सारी की सारी सीटें राष्ट्रवादी पार्टी को मिलीं।

विधान को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया। मुख्यमंत्री बनने के बाद विधान को वो सबकुछ हासिल हो गया जिसका एक आम आदमी केवल स्वप्न ही देख सकता था। लेकिन एक समस्या अब भी थी। वो किसी को ये नहीं बता सकता था कि भोलेनाथ के वरदान के परिणामस्वरूप उसकी वाणी में सम्मोहन शक्ति का निवास है और इस शक्ति की सहायता से वो पूरे विश्व पर राज कर सकता है। किसी को न बता पाने के कारण उसका मन बार बार आईने में देखकर ख़ुद से बातें करने के लिए मचलने लगता। लेकिन हर बार उसे भोलेनाथ की बताई बात याद आ जाती और वो मन मसोसकर रह जाता था।

मुख्यमंत्री बनने के बाद विधान का ध्यान ख़ुद को सजाने सँवारने पर गया। उसके लिए हर हफ़्ते एक नया सूट सिला जाने लगा। कागज़ों पर यही दिखाया जाता कि यह सूट किसी ने मुख्यमंत्री महोदय को तोहफ़े में दिया है। विधान का मन प्रदेश के बड़े बड़े लोगों में उठने बैठने के लिए भी मचलने लगा। सो अक्सर वो बड़े बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बैठकों और पार्टियों में जाने लगा। उसने एक चौड़ी छाती वाले अभिनेता को अपने प्रदेश का ब्रांड एम्बेसडर बना लिया। देखते ही देखते जिन जमीनों पर कल तक खेती होती थी उन पर बड़े बड़े कारखाने और बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी होने लगीं। किसानों के गाँव हों या या शहरों में बसी झुग्गी झोंपड़ियाँ सब रातोंरात खाली हो जाती थीं और अगले दिन सुबह से ही वहाँ बड़े बड़े बुलडोजर चलने लगते थे। कोई आवाज़ उठती थी तो उसे मुख्यमंत्री निवास आने का निमंत्रण दिया जाता था जहाँ जाने के बाद वो आवाज़ इस कदर सम्मोहित होकर लौटती थी कि फिर वो आजीवन विधान का गुणगान करती रहती थी। प्रदेश के विकास का सूचकांक धड़ाधड़ ऊपर जाने लगा और मानवता का सूचकांक उतनी ही तेज़ गति से नीचे गिरने लगा। देश भर में ये बात फैलने लगी कि विधान के प्रदेश का विकास देश में सबसे तेज़ गति से हो रहा है। इस तरह पाँच साल तक जनता विधान के सम्मोहन में बँधकर सोती रही और उसी नींद में चलते हुए पाँच साल बाद फिर से विधान को मुख्यमंत्री चुन आई।

(७)

विधान को दुबारा मुख्यमंत्री बने तीन साल गुज़र गये और देश के लोकसभा चुनाव सर पर आ गये। अब विधान का मन मुख्यमंत्री पद से ऊब चुका था। मुख्यमंत्री का सम्मान केवल उसके प्रदेश में ही होता है। अपने प्रदेश में तो वो राजा होता है लेकिन प्रदेश के बाहर जाते ही वो अपने प्रदेश की जनता का नौकर भर रह जाता है। विधान अब देश का प्रधानमंत्री बनना चाहता था। पार्टी में उससे आगे कई कद्दावर नेता देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। लेकिन राष्ट्रवादी पार्टी अबतक कभी अपने दम पर देश में सरकार नहीं बना पाई थी। ऐसे में विधान ने एक एक करके पार्टी के सभी कद्दावर नेताओं से मिलना शुरू किया। जो नेता विधान से एक बार मिल लेता वो विधान की वाणी में मौजूद सम्मोहन शक्ति से बच न पाता। इस तरह धीरे धीरे विधान ने पार्टी के अधिकांश नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया। परिणाम यह हुआ कि जब लोकसभा चुनावों की घोषणा होने पर पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई तो उसमें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में विधान को चुन लिया गया। इसके परिणाम स्वरूप पार्टी के कई अन्य वरिष्ठ नेता जो प्रधानमंत्री बनने का सपना सँजोए हुए थे विधान से नाराज़ हो गए। लेकिन विधान के पास तो हर मर्ज़ की अचूक दवा के रूप में उसकी वाणी थी ही। वो एक एक करके नाराज़ नेताओं से मिलने लगा और एक एक करके पार्टी के वरिष्ठ नेता मीडिया को बताने लगे कि विधान प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वथा उपयुक्त है और वो आने वाले चुनाव में विधान को पूरा सहयोग देंगे।

इस तरह पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को मनाने के बाद विधान पर लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रचार करने की जिम्मेदारी आ गई। इस बार विधान को बहुत ही कम समय में देश के अधिकांश मतदाताओं को सम्मोहित करना था। कार्य बहुत कठिन था इसलिए विधान रात में केवल चार-पाँच घंटे ही सोता था। सुबह से शाम तक वो हैलीकॉप्टर की मदद से एक चुनाव क्षेत्र से दूसरे चुनाव क्षेत्र में रैली करता रहता था। इस बात की चर्चा पूरे देश में हो रही थी कि विधान के भाषण बेहद अनूठे होते हैं। विधान को सुनने के लिए चुनाव क्षेत्र के कोने कोने से लोग आते थे। जब विधान बोलना शुरू करता था तो उसकी जिह्वा से अपने आप उस चुनाव क्षेत्र के इतिहास का वो काल सुनाई देने लगता था जिस पर वहाँ के लोगों को गर्व होता था। हर स्थान के इतिहास का कोई न कोई काल ऐसा होता है जिसपर वहाँ रहने वालों को गर्व होता है। विधान की वाणी से अपने आप उसी चुनाव क्षेत्र की भाषा निकलने लग जाती थी और रैली में आये हजारों हजार लोग पूरी तरह सम्मोहित होकर अपने घर लौटते थे।

इस तरह रात-दिन विधान ने मेहनत की। जब चुनाव परिणामों की घोषणा हुई तो राष्ट्रवादी पार्टी लोकसभा की दो तिहाई से ज़्यादा सीटों पर विजयी हुई। विधान ने सोचा कि थोड़ा वक्त और मिला होता तो लोकसभा की बाकी सीटें भी उसकी पार्टी के ही खाते में आतीं। कुछ भी हो आख़िरकार विधान की एक और ख़्वाहिश पूरी हो गई। वो देश का प्रधानमंत्री बन गया।

(८)

जैसे जैसे विधान की वाणी में सम्मोहन शक्ति बढ़ती जा रही थी विधान की महत्वाकांक्षा भी बढ़ती जा रही थी। अब वो चाहता था कि उसका देश अपने समाज में मौजूद तमाम बुराइयों के बावजूद कुछ ही वर्षों में दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बन जाय। उसकी संस्कृति दुनिया की बाकी सारी संस्कृतियों को उखाड़ कर फेंक दे। उसका धर्म दुनिया का एकमात्र धर्म बन जाय और उसकी भाषा दुनिया की एकमात्र भाषा। दुनिया जो कुछ भी करे उससे सलाह लेकर करे। वो अमेरिका के राष्ट्रपति से भी ज्यादा शक्तिशाली आदमी बनना चाहता था। इसके लिए उसने दुनिया के कोने कोने में जाकर लोगों को अपनी वाणी से सम्मोहित करने का निश्चय किया।

सबसे पहले विधान जापान पहुँचा। वहाँ उसने बुद्ध पर बोलना शुरू किया। सम्मोहन शक्ति के कारण उसके मुँह से जापानी भाषा अपने आप निकलने लगी। उसने वही सब कहा जो वहाँ के लोग सुनना चाहते थे। कुछ ही देर में वहाँ खड़ी जनता पूरी तरह सम्मोहित हो चुकी थी। अब तो सम्मोहन शक्ति का प्रभाव इतना बढ़ चुका था कि विधान को टीवी पर देखने वाले या उसकी आवाज़ रेडियो पर सुनने वाले भी सम्मोहित होने लगे थे। जापान से अमेरिका, चीन, कनाडा, रूस, इस तरह विधान का सफर चलता रहा और जब वो भारत लौटा तो दुनिया के दस सबसे बड़े देशों की जनता पूरी तरह उसके शब्दों के सम्मोहन में बँध चुकी थी। अब विधान को विश्वास होने लगा था कि वो जो चाहे कर सकता है।

उसी रात विधान ने एक स्वप्न देखा। उसने देखा कि आसमान के नज़दीक कहीं बादलों में ख़ुदा, मसीहा, भोलेनाथ और अन्य धर्मों के अध्यक्षों की बैठक हो रही है। भोलेनाथ अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे हैं और बाकी सब उनके सामने रखी अन्य कुर्सियों पर। थोड़ी देर तक सब आपस में खुसर पुसर करते रहे फिर अन्त में मसीहा भोलेनाथ से बोले, “आप समय के द्वारा हम सबसे पहले लाये गये हैं इसलिए आप हमारे बड़े भाई की तरह हैं। हम सब आपका सम्मान करते हैं लेकिन इस बार आपने ये कैसा वरदान दे दिया ब्रदर। अब तो सम्मोहन में बँधे सारे लोग आपका धर्म स्वीकार कर लेंगे और हम बिना प्रशंसा के भूखों मर जाएँगें। हमारे बीच हुए समझौते के अनुसार हममें से कोई एक यदि किसी इंसान को वरदान देता है तो दूसरा उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। अब अगर आपने जल्द ही कुछ न किया तो हमें ये समझौता रद्द करना पड़ेगा।”

भोलेनाथ मुस्कुराकर बोले, “जैसा कि आप सब जानते हैं कि हमारे द्वारा दिये गये वरदानों में ही उनकी काट छुपी होती है। जैसे भस्मासुर वरदान के द्वारा प्राप्त शक्ति से स्वयं ही भस्म हो गया था वैसे ही सम्मोहन शक्ति भी स्वयं ही स्वयं को नष्ट करेगी। जल्द ही अपने सम्मोहन का शिकार विधान स्वयं हो जाएगा। अपने ही सम्मोहन में फँसकर वो ख़ुद स्वयं को नष्ट कर लेगा। आप सब निश्चिंत रहें बस कुछ ही दिनों की बात है फिर सब पहले जैसा हो जाएगा।”

डर के मारे विधान की नींद टूट गई। उसने बगल में रखे टेबल लैम्प का बटन दबाया। वातानुकूलित कमरे में भी उसका शरीर पसीने से नहाया हुआ था। तभी उसकी नज़र दीवार पर लगे आईने की तरफ गई। उसकी निगाह ख़ुद से मिली और उसे वरदान देते समय भोलेनाथ की बताई बात याद आने लगी। वो चिल्ला उठा, “नहीं मैं आत्महत्या कभी नहीं करूँगा। मुझे आत्महत्या नहीं करनी है। मैं आज के बाद आईना ही नहीं देखूँगा।”

विधान ने फौरन बगल में रखा पानी का गिलास उठाया और आईने पर दे मारा। आईना टूटकर नीचे गिर पड़ा। विधान ने उसी दिन अपने बँगले के सारे आईने निकलवा दिये। उसके मित्रों और जाननेवालों में ये ख़बर धीरे धीरे फैलने लगी कि विधान को आईने से डर लगने लगा है।

विधान दफ़्तर पहुँचा। रोज़ जिन आईनों को देखता हुआ वो गुज़र जाता था आज उन्हें देखते हुए वो डर के मारे भीतर तक काँप जाता था। दफ़्तर में बैठकर उसने थोड़ी देर तक सोच विचार किया फिर एक कार्यालय आदेश जारी किया कि प्रधानमंत्री कार्यालय में लगे सारे आईने चाहे वो शौचालय में ही क्यों न लगे हों निकालकर तोड़ दिये जायँ। शाम को विधान पार्टी के मुख्यालय में सभी विधायकों की एक कार्यशाला को सम्बोधित करने जाने वाला था। उसे याद आया कि वहाँ भी तो तमाम आईने लगे हुए हैं। उसने पार्टी के अध्यक्ष को बुलावाया जो उसके सम्मोहम में पूरी तरह बँधा हुआ था और दुनिया उसे विधान का दाहिना हाथ कहती थी। उसने फ़ौरन पार्टी मुख्यालय के सारे आईने निकलवाकर फिंकवा दिये। लेकिन दुनिया सिर्फ़ विधान के घर या दफ़्तर तक ही सीमित नहीं थी। दुनिया बहुत बड़ी थी और आईने दुनिया में हर जगह मौजूद थे। उसे जिस भी नई जगह जाना होता वहीं से आईने तुड़वाकर फिंकवा देने का अनुरोध करता। लेकिन दुनिया बगैर आईनों के कैसे चल सकती है। आईने न होते तो दुनिया इतनी ख़ूबसूरत न होती।

जैसे जैसे विधान का डर बढ़ता जा रहा था लोगों पर उसका सम्मोहन कमजोर पड़ता जा रहा था। विधान का सारा ध्यान तो एक स्वप्न को सच मानकर आईने तुड़वाकर फिंकवाने में लगा हुआ था। उसे अपने सम्मोहन के टूटने का पता तब चला जब एक दिन उसका दाहिना हाथ कहे जाने वाला पार्टी का अध्यक्ष एक बड़े डॉक्टर के साथ आया। डॉक्टर ने अपना स्टेथेस्कोप निकाला तो उसकी चमचमाती हुई चकरी को देखते ही विधान कुर्सी से उछल पड़ा और डॉक्टर से स्टेथोस्कोप कमरे के बाहर छोड़कर आने का अनुरोध करने लगा। डॉक्टर ने बगैर स्टेथेस्कोप के ही विधान की जाँच की और बाहर निकलकर पार्टी अध्यक्ष से बोला, “शारीरिक रूप से तो ये बिल्कुल भले चंगे हैं लेकिन इन्हें एक बड़ा ही विचित्र मानसिक रोग हो गया है इसे आईनोफ़ोबिया कहते हैं। थोड़ा बहुत तो ये रोग सारे शक्तिशाली लोगों को होता है लेकिन इनके केस में यह रोग बहुत ही भीषण रूप धारण कर चुका है। इन्हें जल्द से जल्द पागलखाने भेजना होगा ताकि समय पर इनका इलाज हो सके वरना इस रोग में रोगी पहले तो कत्लेआम करवाता है और बाद में आत्महत्या कर लेता है।”

आजकल विधान पागलखाने में है। आईने जैसी कोई भी चीज देखते ही उसे पागलपन का दौरा पड़ने लगता है और वो बड़ी मुश्किल से डॉक्टरों के काबू में आता है। उसका सम्मोहन अब पूरी तरह से टूट चुका है और जनता का दिमाग अब धीरे धीरे दूसरी तरह के सम्मोहनों से भी लड़ना सीख रहा है।